कारगिल में 8 वीं शताब्दी में बनायीं पहाड़ी चट्टान में नक्काशीदार प्रतिमाएं दुनिया केवल तीन ही प्रतिमाएं बची हैं , इनके अलावा अफ़ग़ानिस्तान के बामियान शहर की ५ वि शताब्दी की प्रतिमा को तालिबान द्वारा ईस्वी सं २००१ नष्ट कर दिया गया था
भारत के लद्दाख क्षेत्र में कारगिल एक प्राचीन शहर है , यह शहर कभी ईस्वी सं १९४७ से पहले एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों का संगम स्थान था और सिल्क मार्ग के लिए एक पारगमन स्थल था , मध्य एशिया, चीन, तिब्बत, ज़ांस्कर, उत्तर भारत के व्यापारियों ने कारगिल के माध्यम से मसाले, चाय, कपड़ा, कालीनों, रंजक का कारोबार किया। कारगिल जिसे पुरीग के नाम से भी जाना जाता था, यहाँ की बोलचाल की भाषा बाल्टी -पुरीग है जो तिब्बती ज़बान से बहुत मिलती जुलती है , ज़ांस्कर लोग भोटो बोलते हैं। 16 वीं शताब्दी में यहां के राजा सिंगे नामग्याल ने अपने लोगों को बौद्ध से शिया इस्लाम में परिवर्तित करने का निर्देश दिया, फारसी के बहुत सारे शब्द और वाक्यांश दैनिक बोलने वाली भाषा का हिस्सा बन गए, विवाह बच्चे का जन्म और त्यौहार जैसे सामाजिक समारोह अभी इस्लामी हैं लेकिन बौद्ध अनुष्ठान भी शामिल है ।
यहां कई प्रतिमाएँ और छापें हैं जो बौद्ध काल के दौरान बनाई गई थीं, उस काल के लोगों की कला के कौशल और समर्पण को प्रदर्शित करने वाली मैत्रेय बुद्ध की सुंदर नक्काशीदार मूर्तियाँ हैं।
कारगिल शहर से 42 कि.मी. , सांकू के पास कारगिल – सुरू घाटी रोड पर एक गाँव कारच्येखार है, यहाँ मैत्रेय बुद्ध की दस मीटर ऊँची प्रतिमा एक सलेटी पीली चट्टान से काटी गई है, इसे कुशल कलाकारों द्वारा उकेरा गया है, इसके चारों ओर छेद से पता चलता है कि मचान का भी इस्तेमाल किया गया था , चेहरे पर बहुत बारीक विवरण के साथ नक्काशी की गई यह प्रतिमा ५ वीं शताब्दी में बनी हुई प्रतीत होती है | बाजू , कमर और सर पर रूद्राक्ष की माला है और बाएं हाथ में कमंडल है | कंधे पर जनेऊ और दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है
कारगिल से लगभग १६ किलोमीटर दूर अपाती गाँव है जो की एक को पानी की धारा के साथ बसा हरा भरा गाँव है , गाँव को पार करने के बाद और दाहिने हाथ की ओर पहाड़ी चट्टान में एक करीब ८ मीटर ऊँची सुंदर मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा जीका दाहिना हाथ “अभय मुद्रा” में है और बाएँ हाथ में है पानी ले जाने के लिए “कमंडल” , प्रतिमा की आँखे उभरी हुई है , प्रतिमा का समय के साथ कुछ हिस्सा झड़ सा गया है।
मुलबेक श्रीनगर-लेह राजमार्ग पर कारगिल से ४२ किमी दूर है, मैत्रेय बुद्ध 9 मीटर ऊँची प्रतिमा एक पत्थर की चट्टान में चार भुजाओं के साथ उकेरा गया है, पहला दाहिना हाथ “वरदा मुद्रा” में है, दूसरा दाहिना हाथ “रुद्राक्ष माला” की माला, पहला बायां हाथ पानी का बर्तन “कमंडल” उठाए हुए है और दूसरा बायां हाथ पत्तियों के साथ शाखा के साथ है । कोहनी और कलाई के ऊपर दोनों हाथ रुद्राक्ष माला के चारों ओर बंधे हुए हैं, लंबे कान “कुंडल” कान के छल्ले के साथ हैं, गर्दन सजावटी हार के साथ सजी है। एक “जनेऊ” को नाभि के नीचे तक बाएं कंधे से लटका हुआ देख सकता है। गाँठ वाले बाल कंधों पर गिर रहे हैं। यहां की मूर्ति अपाती और की मूर्तियों से बिल्कुल अलग है।
द्रास शहर लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर कारगिल से 65 किमी दूर है, वहाँ कुछ पत्थर की मूर्तियाँ आंशिक रूप से एक मैत्रेय बुद्ध, अवलोकिवतेश्वर, एक घोड़ा सवार, एक कमल फूल और एक स्तूप के रूप में पहचाने जाने योग्य हैं। ये सभी प्रतिमाएं यहां पर घाटी में कभी तिब्बती बौद्ध धर्म का प्रभाव था दर्शाती है ।
अफ़ग़ानिस्तान के बामियान बुद्ध की मूर्ति के विध्वंस के बाद पूरी दुनिया में भारत के कारगिल क्षेत्र में चट्टान के ऊपर नक्काशीदार मूर्तियों ही बची है और यह हमारी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है
अनिल राजपूत
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